
मैं
कोई आलोचक नहीं हूँ, ना ही उतनी हैसियत रखता हूँ, पर जो अच्छा लगे उसकी तारीफ करना
तो बनता है (हालांकि तारीफ करने में मेरे हाथ थोड़े तंग ही हैं).
पुस्तक: ख़ैर...छोडो
कवी: विश्व
दीपक
प्रकाशन: हिंद-युग्म
पन्ने: १४४
सबसे
पहली बात जो मुझे अच्छी लगी वो थी कविताओं की सूक्ष्मता और सुगमता. कवितायेँ सतही
कतई नहीं हैं, पर फिर भी बहुत ही सहज हैं. हमारी प्रायः की सोच को ही बड़े ही कुशल
से शब्दों में पिरोया है दीपक ने.
हालांकि
मैं लिखता तो कुछ यूँ के और मैं फिर भी वहीँ रहता, तुम्हारी अपेक्षाओं से
परे... पर जिस सहजता से कटाक्ष किया है दीपक ने वो सराहनीय तो अवश्य ही है.
वह
ज्यादातर चुप रहता है –
प्रियतम पे नहीं है, बल्कि पिता पे है. पढ़ के लगा की शायद ये उसी व्यक्ति की बात
की जा रही जो मेरे घर में साथ में रहता है, लगता है कुछ कहना चाहता है पर कह नहीं
पा रहा क्यूंकि मैं सुनना ही नहीं चाहता – वह जो मेरा पिता है, मुझे आज भी
लाजवाब कर देता है...
ये
तीसरी कविता फिर से खुद पे है, मुड़ने या आगे बढ़ जाने के अंतर्द्वंद पे है. कुछ ही
पंक्तियाँ हैं इस कविता में, पर सब कुछ कहने को ज्यादा शब्द कहाँ लगते हैं.
कठिन,
भावुक और गुढ़ कवितायें ही नहीं हैं हैं इस संग्रह में – कुछ बड़े ही सीधे, सरल और
कुश्नुमा प्रसंग भी हैं – जैसे की जेरोक्स करके रख लूँ मैं....आपकी बदमाशियाँ...
और
क्या लिखूं, पढ़ के अच्छा लगा. सीधा, सरल पर गहरा भी लगा. ऊपर जो ४ कवितायें लिखीं
वो संग्रह के पहले आधे भाग से ही हैं. और भी कई कवितायें हैं जो सरल लगती तो हैं
पर गहरी सोच रखती हैं. न केवल रिश्तों पर, दीपक ने सामजिक मुद्दों और व्यवस्था पर
भी उसी सहजता से लिखा है.
हिंदी
में एक सराहनीय प्रयास के लिए विश्व दीपक को सहर्ष धन्यवाद...
जाते
जाते...
//अब उड़ती चिड़िया के मैं पर नहीं गिनता
अब मैं जमा करता नहीं फतिंगो के जले जिस्म
जो तुम गए, संग ले गए मासूमियत मेरी
~ विश्व दीपक //


खैर छोडिये...
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